२)
शाम-सुबह, निर्मला दोनों समय घर के काम-काज के बाद मील दो मील तक घूमने के लिए चली जाती थी । इससे शुद्ध वायु के साथ-साथ कुछ समय का एकान्त, उसे कोई नई बात सोचने या लिखने के लिए सहायक होता । किन्तु निर्मला की सास को बहू की यह हवा-खोरी न रुचती थी। उन्हें यह सन्देह होता कि यह घूमने के बहाने न जाने कहाँ-कहाँ जाती होगी; न जाने किससे किससे मिलकर क्या क्या बातें करती होगी । प्रायः वह देखा करतीं कि निर्मला किधर से जाती है। और कहाँ से लौटती है ? एक बार उन्होंने पूछा भी कि- "तुम गईं तो इधर से थीं, उस ओर से कैसे लौटीं ?"
निर्मला इसका क्या जवाब देती, हँसकर रह जाती। किन्तु निर्मला की सास बहू की इस चुप्पी का दूसरा ही अर्थ लगातीं । उन्हें निर्मला का आचरण पसन्द न था ।उसके चरित्र पर उन्हें पद पद पर सन्देह होता; किन्तु इन मामलों में जब वे स्वयं रमाकान्त को ही उदासीन पातीं तो उन्हें भी मन मसोस कर रह जाना पड़ता था। क्योंकि रमाकान्त के सामने भी निर्मला घूमने निकल जाती और घंटों बाद लौटती । अन्य पुरुषों में उनके सामने मी स्वच्छन्दतापूर्वक बातचीत करती, परन्तु रमाकान्त इस पर उसे ज़रा भी न दबाते ।
किन्तु कभी कभी जब उनसे सहन न होता तो वे रमाकान्त से कुछ न कुछ कह बैठतीं तो भी वे यही कह कर कि- "इसमें क्या बुराई है" टाल देते । उनकी समझ में रमाकान्त इस प्रकार मां की बात न मानने के लिए ही पत्नी को शह देते थे। इसलिए वे प्रत्यक्ष रूप से तो निर्मला को अधिक कुछ न कह सकती थीं किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से, कुत्ते, बिल्ली के बहाने ही सही, अपने दिल का गुबार निकाला करतीं । निर्मला सब सुनती और समझती किन्तु वह सुनकर भी न सुनती और जानकर भी अनजान बनी रहती ।
वह अपना काम नियम-पृर्वक करती रहती; इन बातों का उसके ऊपर कुछ भी प्रभाव न पड़ता । कभी-कभी उसे कष्ट भी होता किन्तु वह उसे प्रकट न होने देती । वह सदा प्रसन्न रहती, यहाँ तक कि उसके चेहरे पर शिकन तक न आती। वह स्वयं किसी की बुराई न करना चाहती थी, उसके विरुद्ध चाहे कोई कुछ भी करता रहे ।